Natasha

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राजा की रानी

मेरे जाने के दिन गौहर फिर मेरा बैग उठाकर प्रस्तुत हो गया। इसकी जरूरत न थी, नवीन तो शर्म से प्राय: अधमरा हो गया, पर उसने एक न सुनी। ट्रेन में बैठाकर वह औरतों की तरह रो उठा, बोला, “मेरे सिरकी कसम है श्रीकान्त, चले जाने के पहले एक दिन फिर आना ताकि फिर एक बार मुलाकात हो जाय।”


आवेदन की उपेक्षा नहीं कर सका, वचन दिया कि मिलने के लिए फिर एक बार आऊँगा।

“कलकत्ता पहुँचकर कुशल-संवाद दोगे न?”

यह वचन भी दिया। मानो न जाने कितनी दूर चला जा रहा हूँ!

कलकत्ते के मकान में जब पहुँचा, तब प्राय: संध्याल हो गयी थी। चौखट पर पैर रखते ही जिसके दर्शन हुए, वह और कोई नहीं स्वयं रतन था।

“यह क्या रे, तू है?”

“हाँ, मैं ही हूँ और कल से बैठा हूँ। एक चिट्ठी है।” समझ गया कि उसी प्रार्थना का उत्तर है। कहा, “डाक से भेजने पर भी तो चिट्ठी मिल जाती?”

रतन ने कहा, “यह व्यवस्था किसान, मजदूर और साधारण गृहस्थ के लिए है। माँ की चिट्ठी अगर एक आदमी बिना खाये-पीये और सोये पाँच-सौ मील हाथ में लिए दौड़ता हुआ न लाये, तो खो न जायेगी? आप तो सब जानते हैं, क्यों झूठ-मूठ पूछ रहे हैं?”

बाद में सुना कि रतन का यह अभियोग झूठा है। क्योंकि खुद ही उद्यत होकर वह यह चिट्ठी अपने हाथ लाया है। मालूम हुआ कि ट्रेन की भीड़ और आहार वगैरह की अव्यवस्था के कारण उसका मिजाज बिगड़ गया है। हँसकर कहा, “ऊपर आ। चिट्ठी पीछे पढ़ूँगा, चल, पहले तेरे खाने का इन्तजाम कर दूँ।”

रतन ने पैरों की धूल लेकर प्रणाम किया और कहा, “चलिए।”
♦♦ • ♦♦

डकार से चौंकाता हुआ रतन दाखिल हुआ।

“कह रतन, पेट भर गया?”

“जी हाँ। आप चाहे कुछ भी कहें बाबू, लेकिन हमारे कलकत्ते के बंगाली ब्राह्मणों के अलावा और कोई रसोई बनाना नहीं जानता। उनके आगे तो इन मारवाड़ी महाराजों को जानवर ही कहा जा सकता है।”

मुझे याद नहीं कि दोनों प्रान्तों की रसोई की अच्छाई-बुराई या रसोइये की कला के बारे में रतन से कभी मैंने बहस की हो, पर रतन की जितना जानता हूँ उससे यही खयाल हुआ कि सुप्रचुर भोजन से वह खूब सन्तुष्ट हुआ है। अगर यह बात न होती तो वह पश्चिमी रसोइयों के बारे में ऐसी निरपेक्ष राय न दे सकता। उसने कहा, “गाड़ी में धक्के तो कम नहीं लगे, हाथ-पैर फैलाकर लेटे बिना...”

“तो अच्छा है रतन, चाहे कमरे में चाहे बरामदे में बिछौना बिछाकर सो जा, कल सब बातें होंगी।”

न जाने क्यों चिट्ठी के लिए उत्कण्ठा न थी। ऐसा लग रहा था कि उसमें जो कुछ लिखा होगा वह तो मालूम ही है।

रतन ने फतूई की जेब से एक लिफाफा निकालकर मेरे हाथ में दे दिया। चपड़े से सील-मोहर किया हुआ था। बोला, “बरामदे की इस दक्षिणवाली खिड़की के बगल में बिछौना बिछा लूँ? मसहरी लगाने की झंझट नहीं होगी। कलकत्ते के अलावा ऐसा सुख और कहाँ है। जाता हूँ...”

“किन्तु सब खबर अच्छी है न रतन?”

रतन ने मुँह गम्भीर कर कहा, “ऐसा ही तो लगता है। गुरुदेव की कृपा से मकान का बाहरी हिस्सा गुलजार है। भीतर दास-दासियों, बंकू बाबू, और नयी बहू ने आकर घर-द्वार रोशन कर दिया है, और सबके ऊपर स्वयं माँ हैं जो मकान की मालकिन हैं। ऐसी गृहस्थी की बुराई कौन करेगा? लेकिन मैं बहुत पुराना नौकर हूँ, जाति का नाई हूँ- रतन को इतनी जल्दी भुलावा नहीं दिया जा सकता बाबू। इसीलिए तो उस दिन स्टेशन पर ऑंखों के अश्रु न रोक सका। यह निवेदन किया था कि परदेश में नौकरों की कमी होने पर रतन को एक बार खबर जरूर दे दें। जानता हूँ कि आपकी सेवा करने पर भी उसी माँ की सेवा होगी। धर्म का पतन नहीं होगा।”

मैं कुछ भी नहीं समझा, सिर्फ चुपचाप ताकता रहा। वह कहने लगा, “बंकू बाबू की अब उम्र भी हो गयी, थोड़ा-बहुत पढ़-लिखकर आदमी भी बन गये हैं। शायद सोचते हैं कि दूसरे के अधीन किसलिए रहा जाय। दानपत्र के जोर से सब मार तो लिया ही है। मानता हूँ कि मोटे तौर पर उन्होंने काफी हाथ साफ किया है, पर वह कितने दिनों का है बाबू?”

बात अब भी साफ न हुई, पर एक धुँधली छाया ऑंखों के सामने तैर गयीं। वह फिर कहने लगा, “आपने तो खुद अपनी ऑंखों से देखा है कि महीने में कम-से-कम दो दफा मेरी नौकरी छूट जाती है। हालत बुरी नहीं है, नाराज होकर जा भी सकता हूँ, लेकिन क्यों नहीं जाता? जा नहीं सकता। इतना जानता हूँ कि जिसकी दया से सब कुछ हुआ है, उसके एक नि:श्वास से ही आश्विन के मेघ की तरह सब लोप हो जायेगा, वह पलक मारने की भी फुर्सत नहीं देगा। यह माँ की नाराजगी नहीं है, यह तो मेरे देवता का आशीर्वाद है।”

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